असमर्थ मन

Author(s): सुमन शेखर

कोमल-निश्छल प्रेम –
न हमसे हो पाएगा

प्रेम दूब पर बूंद ओस की
प्रेम प्रलय पर विजय बोध है
प्रेम प्रभात की प्रथम किरण है
प्रेम स्वयम का आत्मशोध है।

भूख-गरीबी , पत्थर तन है
आग लगी है , विचलित मन है।
मरूभूमि के कंटक वन में
मरघट की ऊसर धरती पर
कहो गुलाब क्या खिल पाएगा?

मुट्ठी में गर जीवन भर लूँ
एक ज़ोर मैं और लगा लूँ
सारा अमृत बह जाएगा
मेरे हिस्से विष आएगा।
कहो प्रेम क्या हो पाएगा?

क्या गुलाब की नाजुक कलियाँ
मेरी क्षुधा मिटा पाएंगी?
कभी स्नेह या प्रीति किसी की
मुझमें प्रेम जगा पाएगी?

नहीं! एक ही उत्तर इसका
सभी दिशाएं बोल रही हैं
हिय मेरा अभिशप्त प्रेम का
भेद सभी से खोल रही हैं।

जीवन क्या है किसे पता है?
प्रेम कहाँ कैसे मिलता है?
भव सागर कितना गहरा है
उतरा हूँ? जो कह पाऊँगा!
कहो ! मुक्त मैं हो पाऊँगा?