आँगन बरखा अटरिया
Author(s): अपर्णा शाम्भवी
सावन घिर आए भिगाए अँगनिया। मोहे जावन दो न पहिराओ पैंजनिया।। फेंकी पीरी चुनरी रे उघरी अटरिया। लाजो न लजाए री गाई कजरिया।। जेई रंग-रंगइनी सब बही-बही जाए। मोरी पैंजनिया जब ताल मिलाए।। बरसे झूमी झम-झम कारी बदरिया। पियू भारी लगे लाली-झीनी चदरिया।। मोहे बैरागन के रंग रंगा दो। अरी पिया मोरा श्रृंगार हटा दो।। बन जाऊँ मैं श्याम तू बन जा राधा। जा बन जाएँ जुगल जोड़ी आधा-आधा।। मैं नाचूँ ध्वनि जैसे नाचे मुरलिया की। तू बाजे मधुर-धुन गोपी-पायलिया की।। मैं हो करधन तोहे अंग लगाऊँ। तू बन माखन मैं मिश्री हो जाऊँ।। मोरे केश-कजर सब बिखरत जाए। मोरा अल्हड़ रूप जासे निखरत जाए।। पिया मोहे सखी की याद सताए। तू सखी रूप में अति मन भाए।। मोरी नथिया अाज मोहे रास न लागे। तोसे लगन प्यास की अगन है जागे।। अब दे उतार जेई रजत पैंजनिया। मोहे भारी लगे घुँघरू झमकनिया।। चढ़ी नाचूँ बिसर-सब उघरी अटरिया। मोहे जावन दो न पहिराओ पैंजनिया।।