मधुशाला
Author(s): आयुष राज
हिंदी काव्य में ऐसी कुछ कालजईं रचनाएँ हुई हैं जिन्होंने काव्य के स्वरूप को, उसके दर्शन को काफ़ी हद तक बदल दिया, हरिवंश राय बच्चन जी की कविता ‘’मधुशाला ‘’ इन्हीं दिव्य रचनाओं में से एक है।
यह पुस्तक कवि के खुद के अनुभवों और कल्पनाओं का मिश्रण है।
भाषाई सुंदरता और जीवन दर्शन से भरपूर यह रचना सदैव प्रशंसा और आलोचनाओं के तराज़ू पर झूलती रही है। कवि पर नित्य मदिरापान को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे, सौभाग्यपूर्ण स्वयं गांधीजी ने इन खोखली आलोचनाओं का खंडन किया था।
कविता विधिवत अनेक रूबाइयों का मिश्रण है। ‘रूबाई’ चार पंक्तियों की एक छोटी कविता होती है, जिसमे पहले, दूसरे और चौथे पंक्तियों में तुकबंदी होती है । कविता में भाषाई सुंदरता और सिद्धांत दर्शन समग्र मात्रा में देखने को मिलता है।
पुस्तक में जीवन की मादकता को लेकर जो विभिन्न परिपेक्ष हैं उन्हें खूबसूरती से दर्शाया गया है। कविता के छंद पाठक को एक गहरे आत्म मंथन की ओर ढकेलतें हैं ।
दिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला
मधुशाला की कुछ पंक्तियाँ पाठक को अपने भीतर के ईश्वर की तलाश करने की सलाह देती है । पंक्तियाँ बतातीं हैं कि अंतर्मन के ईश्वर की शक्ति घर्मस्थलों में स्थापित ईश्वरों से सहस्त्र गुना अधिक हैं।
कविता में अनेक पंक्तियाँ धर्म कटाक्ष को समर्पित हैं । कवि बच्चन ने धार्मिक सद्भाव को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अमूल्य हिस्सा माना है। कवि ने रूबाइयों के सहारे स्वयं घोषित धर्म गुरुओं पर अपने अनुयायियों को प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध भटकाने का आरोप लगाया है। कवि का मानना है कि जो सामाजिक नियम देवों द्वारा गढ़े गए थे, उनके परिवर्तन का मनुज को अधिकार नहीं है ।
मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!
मधुशाला की कई रूबाइयों में हमे कवि का प्रकृति प्रेम देखने को मिल जाता है। इन पंक्तियों में कवि कहते हैं के ब्रम्हांड की मधुशाला में यह वसुंधरा एक प्याले के समान है जिसमे आलौकिक प्राकृतिक हाला भरी हुई है और मनुज , पशु, कीट , पक्षी आदि इस मधुशाला में "पीनेवालों" के रूप में एक राहगीर के भाँति ठहरे हुए हैं । कवि ने इस ब्रह्मांड के रचने वाले उस महाशक्ति को साकी माना है जो इस मधुशाला को नियंत्रित करता है
कविता की कुछ पंक्तियाँ ऋतुओं के सौंदर्य का दिव्य वर्णन करती हैं ।
कवि संकेत करते हैं के पर्यावरण और अंतरमन की हाला के मिश्रण से जीवन रूपी मधुशाला सुखद बनती है ।
बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,
बनी रहे वह मिट्टी जिससे बनता है मधु का प्याला,
बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला
रूबाइयों के सहारे कवि ने मनुज जीवन में प्रेम की महत्वता को दर्शाया है । कवि लिखते हैं के प्रेम-हाला का परहेज कर मनुष्य एक दिव्य भाव से वंचित हो रहा है । पीनेवाले और साकी एक दूसरे के पूरक हैं । कवि लिखते हैं के मानव मन के प्याले में जब प्रीत की हाला ढाली जाती है तब यह जीवन-मधुशाला गुलज़ार हो जाती हैं ।
कवि ने प्रेमी मतवालों को समाज में सबसे श्रेष्ठ माना है । वह बताते हैं के प्रेम भाव में लीन व्यक्ति नरपतियों से अधिक धनी एवं संपन्न है। धन , संपत्ति और माया उस हाला के समान है जिसका प्रभाव क्षण भर तक मान्य है परंतु प्रेम हाला की बेहोशी सदैव मनुज पर छाई रहती है ।
आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला,
भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला,
और लगा मेरे होठों से भूल हटाना तुम जाओ,
अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले प्रणय की मधुशाला।
कविता की रूबाइयों में बच्चन जी ने मनुष्य की नश्वरता का अनूठा वर्णन किया है। कवि लिखते हैं कि मनुज के प्याले रूपी शरीर में अब हाला की कुछ अंतिम बूँदें बची हैं। अब स्वयं दण्डधर यमराज साकी के रूप में खड़े हैं जो मनुज को इस जीवन की मधुशाला से निकाल कर भवसागर पार परलोक की दिव्य मधुशाला की ओर खींच रहे हैं। मृत्यु के बाद प्याले में बस कर्म-हाला की कुछ बूँदें शेष हैं जिसके बल पर पीनेवाले के आगे का सफर निर्णीत होगा।
कविता में कवि ने काल को उस हाला के रूप में दर्शाया है जिसका सेवन कर मनुज आनंदमय तो होता है पर क्षण क्षण मृत्यु के निकट भी बढ़ता जाता है। बच्चन जी का मानना है कि एक सुध में, भटके बिना जीवन काल की हाला का सेवन करने से मनुज मोक्ष की मधुशाला पा सकता है ।
यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला,
पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला,
यह अंतिम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है,
पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला