इतना भी अधिकार नहीं?
Author(s): श्रुति
इतना भी अधिकार नहीं?
स्त्री-पुरुष और जाति बॅंट गयी
धर्म, वर्ण और प्रजाति बॅंट गयी
फिर वर्गों में विभाजित इस जग के
क्या ये भी योग्य हकदार नहीं?
मनुज होकर मनुज कहलायें
क्या इन्हें इतना भी अधिकार नहीं?
चोटिल हुए हैं स्वाभिमान इनके
न्यूनता ही आयी है स्थान इनके
आदर के प्यासे इन शुष्क मनों को क्या
मिल सकता मान का पारावार नहीं?
मनुज होकर मनुज कहलायें
क्या इन्हें इतना भी अधिकार नहीं?
जब निर्मल और निश्चल भाव प्रेम है
बंधन मुक्त सरल स्वभाव प्रेम है
फिर शापित समझे जाते उन तन के
क्या हृदय में बस सकता प्यार नहीं?
मनुज होकर मनुज कहलायें
क्या इन्हें इतना भी अधिकार नहीं?
खुलते पंख को जग ने झकझोर दिया
करने को निम्न कार्य मजबूर किया
इन के आशाओं अभिलाषाओं के
स्वप्न हो सकते क्यूँ साकार नहीं ?
मनुज होकर मनुज कहलायें
क्या इन्हें इतना भी अधिकार नहीं?
अपनों ने ही इन्हें पराया बनाया
समाज ने इनका अस्तित्व झुठलाया
स्वाभाविक है जब इनका होना
फिर जग को क्यूँ यह स्वीकार नहीं ?
मनुज होकर मनुज कहलायें
क्या इन्हें इतना भी अधिकार नहीं?
समाज की बेड़ियों को त्याग दिया
उन्मुक्त नभ से अपना हक मांग लिया
सतरंगे इन्द्रधनुष के रंग से रंगा ,
है इनका मान ,
इनकी पहचान यही,
मनुज हैं और मनुज कहलायेंगे
है इनका भी अधिकार यही ।