मगध

Author(s): शशांक

गंगा पार करके दक्षिण बिहार आना मेरे लिए एक ऐसी दुर्लभ प्रक्रिया है जिसके वहन का आज मुझे पुनः सौभाग्य प्राप्त हुआ है। आज सुबह ही मुजफ्फरपुर छोड़ कर पटना आया हूं। उत्तर बिहार में गंडक की तराई से लीची जा चुकी है पर आम्रपल्लवों पर अभी तक शीत नही जम रही। आषाढ़ भीतर हो चला है पर सूर्यदेव के कहर से छाया करने वाले मेघ अभी तक दुर्लभ हैं। गर्मी अपने चरम पर है। दिन का तीसरा पहर है और मैं पटना से गया जाने वाली बस में बैठा हूं। यही कुछ जहानाबाद पार कर रहा होऊंगा। बस की खिड़की से बाहर देखता हूं, फिर अंदर देखता हूं। मन अनायास ही गतिमान है। दिख रहे हैं लोग, केवल लोग, लड़ते लोग, मगही लोग; अपने लोग। बस में लगे स्पीकर पर तेज आवाज़ में ‘राजा हिंदुस्तानी’ के गाने बज रहे हैं। यहां एक युवक स्टील की थाल में कोवा (जो कि ताड़ पर लगने वाला एक फल है) बेच रहा है। बगल वाली सीट पर बैठे चचा के वक्ष पर लिपटा मटिआया हुआ भगवा गमछा खिड़की से आती हवा के वेग में लहरा रहा है। व्यंग्यिक तौर पर ही सही, मगर यह गमछा किसी ध्वजा की सी शान लिए है, जिसपर आज के मगध की स्थिति और गति का सटीक बिंब दिख रहा है; अपने भासमान अतीत का भूला, एक निदग्ध वर्तमान का मारा, सक्षम, किंतु आबद्ध। चचा ने बड़े इल्म से तंबाकू को अपनी करतल पर मला, पीटा, सहयात्रियों को थोड़ा थोड़ा दिया और अब अपने मसूढ़ो में दबा लिया है। मुझे मगध में होने की अनुभूति का बोध हो जाने के लिए इतना तो काफी है। फिर खैनी तो आप में ही हमारी समूहवादिता का बड़ा द्योतक है। मेरे लिए, जिसने किसी परदेस जैसे परिवेश में बड़े होते हुए अपने मगही माता पिता से सिर्फ मगध और मगही के बारे में केवल सुना है, यह वातावरण कुछ रूमानीकृत सा है। ऐसे में, मैं खुद को एक सतही संस्कृतिवादी कहने से पीछे नहीं हटूंगा। क्योंकि गहन संस्कृतिवाद तो उनमें बसता है जो अनभिज्ञ रहते हुए परंपराओं का अनुसरण कर पाते हैं। जिन्होंने गरीबी के दैत्य से लड़ने को शहरीकरण की बांह नहीं गही। कड़े हैं वे वहीं, माथे पर अपनी भेद्यता का टीका लिए। जड़ गए हैं, अंतर में बैठा रत्नाकर वाल्मीकि करने को, तप में ही। और ढो रहे हैं, महाबोधी वृक्ष की भांति, झूलती विरासत का भार। यदि मैं कुछ सांस्कृतिक बोझ का भागी बनना भी चाहूं तो मुझे परंपराओं से चिपका वह दकियानूस, जो कि आधुनिक भारत की सारी विलुप्त संकृतियों का हन्ता रहा है, वापस खींच लाएगा। और न ही इतनी लचक मेरी लेखनी में है जो पुनर्जागरण का भार सह ले। सोन और फलगू इतना गाद भी तो बहाकर नहीं लातीं कि उपज सके इनसे पुनः नालंदा का वह विलुप्त ज्ञान, पाटलिपुत्र की शान और सिद्धार्थ गौतम का बोया वही शांति उद्यान। जो मुट्ठी भर उपज उठता है, वह पेट का पूरक भर ही होता है। कईयों के तन का जामा और सर की छत तो अब भी सितारों पर ही लगते हैं। ऐसे में कला, संस्कृति और परंपराएं बघारना तो पाप सा लगता है। इससे पहले कि मन कुछ और सोचता, मैं अपने गंतव्य पर उतर गया और लाद आया अपनी आशाओं का पारावार चचा के उस गमछे के भाग्य पर या कि उनकी परिस्थितियों पर जो कि यदि कभी धुले तो उतर आए मैल के साथ सदियों की मटियाई संपन्नता।